मैं उम्र के
उस दौर में प्रवेश कर रहा हूँ ,
जब आदतें नहीं बदलती
दोस्त बदलते हैं,
जब प्रेमिका के कानों में सपने गुनगुनाओ
तो आंखों में चमक नहीं उठती,
जब एक सच की खातिर
हज़ार दुखों से भिड़ने की चाहत नहीं होती,
जब सपनीले कल की उम्मीदें
बच्चों की फीस और
दफ्तर की फाइलों के नीचे दबने लगती हैं,
जब जोशो-ताकत से बढते तूफानी कदम
अनुभवों के स्पीड -ब्रेकरों से धीमें पड़ने लगते हैं ,
जब दिल अपने आँख, कान, नाक बंद कर
दिमाग के इशारे पर धड़कने लगता है,
जब शरीर की जरूरतों के आगे
आत्मा की छ्टपटाहट बकवास लगने लगती है ।
मैं उम्र के
इस दौर में प्रवेश कर रहा हूँ
सब कुछ जानते बूझते
फिर भी
हथेली पे दिल की इक आग लिए
कि अब तो बस
अपनी इस कविता को झुठलाने की
तमन्ना बाकी है ।
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