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Tuesday, September 29, 2015

लोकभाषा के हितैषी


एक थे राजा मंथरमति। एक बार उन्हें एक रिपोर्ट के बारे में जानकारी मिली, जिसमें लिखा था कि भारत की अनेक लोकभाषाएं विलुप्त होने की कगार पर हैं। चूंकि भाषा एक क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान होती है, इसलिए भाषा के साथ-साथ उसकी सांस्कृतिक पहचान पर भी खतरा रहता है। इससे राजा साहब चिंता में पड़ गए। उन्हें लोकभाषा का यह संकट अपनी पहचान का संकट दिखा। अब तक उन्हें लगता था कि अंग्रेज बहादुर की बुलाई मीटिंग में उनका खास किस्म की अचकन और पगड़ी पहनना ही उनके राज्य की सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए काफी है। पर रिपोर्ट को जानने के बाद (पढ़ने के बाद नहीं) उन्हें लगा कि संस्कृति की रक्षा के लिए लोकभाषा को बचाना जरूरी है। सो उन्होंने इस दिशा में प्रयास शुरू किए।   
सबसे पहले उन्होंने विचार किया कि उनके राज्य की अपनी एक राजभाषा होनी चाहिए। इस बारे में उन्होंने अपने मंत्री वक्रबुद्धि से चर्चा की, जिन्होंने उनसे असहमत होने के बावजूद भी हमेशा की तरह सहमति जताई। तय हुआ कि इस बारे में मंत्रणा करने के लिये लोकभाषा के विद्वानों को बुलाया जाए। जनता की भाषा अपनाने के लिए जनता के विचार जानने जरूरी हैं। 
नियत दिवस पर सात विद्वान दरबार में उपस्थित हुये। राजा साहब ने गौर किया कि उनमें से तीन विद्वानों की भेषभूषा बाकी चार से अलग है और वो उन चारों से दूरी बनाकर बैठे  हैं। उनके चेहरे पर साफ लिखा था, ‘ये यहां क्या करने आ गये !’ राजा मंथरमति ने इशारों में वक्रबुद्धि से पूछा, ‘ये माजरा क्या है?” वक्रबुद्धि ने भी इशारों में अनभिज्ञता जताई। राजा साहब ने इशारों में उनसे बात करने को कहा और वो अपने आसन से खड़े हुये। सामान्य शिष्टाचार के सवाल-जवाब के बाद उन्होंने पूछा,“ हे विद्वानों, हमारे मन में आपकी भेषभूषा की विभिन्नता को देखकर जिज्ञासा उठ रही है, कृपया कर उसका निराकरण कीजिये।” 
“हे मंत्रिश्रेष्ठ, हम आपके राज्य के ‘अ’ क्षेत्र से आये है। चूंकि यह भेषभूषा हमारी सांस्कृतिक पहचान हैं,  इसलिये  यह ‘ब’ क्षेत्र की भेषभूषा से भिन्न है।”  
“और हम चारों ‘ब’ क्षेत्र से आये है, जहां ‘ब’ भाषा बोली जाती है, और यह ‘अ’ भाषा से भिन्न है।” 
“तो आप यह कहना चाहते हैं कि आपकी भाषा, भेषभूषा और संस्कृति एक-दूसरे से अलग है ?” 
“जी हां, बहुत अलग।” 
मंत्री से राजा को देखा, राजा ने मंत्री को। वो भी हैरान से थे। ‘हमारा पूरा राज्य तो कुल तीस किलोमीटर पर खत्म हो जाता है, उसमें भी दो संस्कृतियां, दो भाषायें!’ 
“पर हमें तो आज तक मालूम ही नहीं था कि हमारे राज्य में दो किस्म की संस्कृतियां बसती हैं। हमें तो दोनों एक समान लगती हैं।” 
“नहीं महाराज ऐसा नहीं हैं। दोनों एक दूसरे से काफी अलग हैं। अब आप हमारे लोकनृत्यों को ही ले लीजिये। ‘ब’ क्षेत्र में नृत्य करते हुये तीन कदम आगे और दो कदम पीछे रखे जाते हैं, जबकि हमारे यहां चार कदम आगे और तीन कदम पीछे।” 
“अरे, पर बात तो वही हुई न ! कुल मिलाकर दोनों एक कदम ही तो आगे बढ़े।” 
“अंतर सिर्फ यही नहीं है महाराज। बाहर से देखने पर दोनों संस्कृतियां चाहे एक सी दिखें, पर भीतर से देखने पर आपको ये अलग दिखेंगीं। जैसे हमारे यहां त्योहारों में पकौड़े पीली सरसों में बनाये जाते हैं, तो उनके यहां काली सरसों में। अब चाहे बाहर वाले को दोनों सरसों दिखें, पर हम तो जानते हैं कि काली सरसों पीली सरसों से अलग है।” 
इसके बाद विद्वानो ने उन्हें विस्तार में बताया कि किस प्रकार संस्कृति की तरह उनकी भाषायें भी अलग है। उनके तर्क सुनकर राजा मंथरमति परेशान हो गये। ये तो दिक्कत हो गयी। अब राजभाषा का क्या होगा ? जब ‘अ’ और ‘ब’ भाषा के आंतरिक मतभेदों की बातें उनके सिर के ऊपर से गुजरने लगीं, वो उन्होंने तय किया कि मामले को वक्रबुद्धि के भरोसे छोड़कर थोड़ा आराम किया जाये। वो काफी मानसिक श्रम कर चुके थे, अब आराम जरूरी था। वक्रबुद्धि मानो इसी पल की प्रतीक्षा में थे। वो जानते थे कि ज्यादा दिमागी मेहनत राजा साहब के बस की नहीं हैं। वो जल्दी थक जाते हैं। थकने वाली यह स्थिति हमेशा वक्रबुद्धि के अनुकूल रही। ऐसे में वो जो भी फैसला करते, राजा साहब को मंजूर होता। और मंजूर न होता तो वक्रबुद्धि उन्हें तब तक थकाते, जब तक वो मंजूर न कर लें। वक्रबुद्धि एक ठेठ नौकरशाह थे। वो राजा और प्रजा दोनों को थकाकर अपना काम निकलवाने में माहिर थे। 
राजा साहब के जाने के बाद जब विद्वानों ने वक्रबुद्धि को समझाना शुरू किया, तो उन्होंने एक के बाद एक कई बेतुके सवाल किये। आखिर थकाना जो था। थोड़ी देर में ही वो लोग खीजने लगे, “मंत्री महोदय, अगर आप मामले की बारीकी को पकड़ नहीं पा रहे हैं, तो ये हमारी गलती नहीं हैं। आप एक बात अच्छे से समझ लीजिये - जब रोज-रोज एक दूसरे के साथ रहना हो, तो छोटे दिखने वाले अंतर भी बड़ी खाई पैदा करते हैं। इसलिये चाहे बाहर से दोनों भाषायें एक लगें, पर वो एक दूसरे से भिन्न हैं और रहेंगी।” 
मंत्री वक्रबुद्धि को समझ आ गया कि भाषा और संस्कृति का सवाल इसके जज्बाती जानकारों द्वारा नहीं, बल्कि उन जैसे सयाने नौकरशाहों द्वारा ही हल हो सकता है। 
उन्होंने फिर वही सवाल किया, “बाकी तो सब ठीक है, पर ये बताइये, राजभाषा किसे बनाया जाये- ‘अ’ को या ‘ब’ को ?”  उनका इतना कहना था कि सब लोग बिलबिला उठे। मौका भाँपकर मंत्री जी ने सभा समाप्त की और उन्हें अगले दिन आने का कहा। 
शाम को राजा साहब को मिर्च-मसाला लगाकर किस्सा सुनाया गया और समझाया गया कि वो इन दोनों से जो भी भाषा चुनेंगे, उसे दूसरे इलाके के लोग खुद पर थोपा हुआ मानेंगे। 
“क्या एक इलाके के लोगों को खुश करने के लिए बाकी को नाराज करना उचित रहेगा ?” 
“अब क्या करें?” राजा साहब ने पूछा। और हमेशा की तरह हल वक्रबुद्धि ने निकाला। उन्होंने राजा साहब को समझाया कि भाषा थोपने के मामले में जल्दबाजी करना उचित नहीं है। इससे एक क्षेत्र के लोग खुद को दूसरे से श्रेष्ठ मानने लगेंगे, जो राज्य की एकता के लिये घातक होगा। दूसरा यह कि इनमें से जिस भाषा को भी राजभाषा बनाया जाएगा, वो राजा साहब को भी सीखनी पड़ेगी। इससे अच्छा तो यह रहेगा कि वो उस समय का सदुपयोग अपनी अंग्रेजी मजबूत करने में लगायें। जब वो एक्सेंट मारकर अंग्रेज़ बहादुर से बात करेंगे तो इम्प्रैशन अच्छा पड़ेगा। लगे हाथ दरबार के उच्च पदाधिकारी भी अपनी अंग्रेजी ठीक कर लेंगे, ताकि अंग्रेज़ बहादुर के साथ पत्राचार बढ़िया अंग्रेजी में हो सके। इससे राज्य के सम्मान में भी वृद्धि होगी।” 
“तो क्या अब हम अंग्रेज़ी को राजभाषा बनायेंगे ?” 
“नहीं महाराज, हमारे दरबार के निचले कर्मचारी अंग्रेज़ी नहीं जानते हैं; सिखाने की जरूरत भी नहीं  है। वो अपना काम हिन्दी में काम करेंगे और हम अंग्रेजी में।” 
राजा साहब को प्रस्ताव पसंद आ गया। तय हुआ कि राज्य की भाषा हिन्दी व अंग्रेजी होगी। 
“परंतु लोकभाषा का भी तो कुछ किया जाना चाहिये। आखिरकार हमारी संस्कृति का सवाल है।” राजा मंथरमति का मन अब भी रिपोर्ट पर अटका हुआ था। 
“उसका भी हल है महाराज। हिन्दी-अंग्रेजी की यह व्यवस्था अस्थाई होगी और सिर्फ तब तक कायम रहेगी, जब तक विद्वान लोग यह तय नहीं कर लेते कि किसे राजभाषा बनाया जाये। जैसे ही सर्वसम्मत हल निकल आयेगा, यह व्यवस्था बंद कर दी जायेगी।” वक्रबुद्धि जानते थे - न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। कोई भी इंसान अपनी भाषा, अपनी संस्कृति को दूसरे से कमतर नहीं मान सकता; वो भी तब जब इतना कुछ दांव पर लगा हो। 
अगले दिन वक्रबुद्धि ने सातों विद्वानों को बुलवाया और बताया कि राजा साहब आपकी विद्वता से प्रसन्न हैं और उन्होंने  एक बड़ी ज़िम्मेदारी आपके ऊपर सौंपी है। आपको अपनी-अपनी भाषाओं का एक शब्दकोश बनाना होगा। इसमें हर शब्द का अर्थ हिन्दी व अंग्रेजी में दिया जायेगा। यह पांच साल का प्रोजेक्ट है, जिसकी समय-सीमा जरूरत पड़ने पर बढ़ाई भी जा सकती  है। प्रस्ताव सुनकर सभी विद्वान फूले न समाये। राजा साहब ने अद्भुत हल निकाला है। अब हम बतायेंगे कि कैसे हमारी भाषा बाकी से अलग और बेहतर है। उनके खुश होने से वक्रबुद्धि भी खुश हुये। वो मानते थे कि पढे-लिखे लोगों को अगर साध कर नहीं रखा जायेगा तो वो कुछ न कुछ उल्टा-पुलटा करेंगे। ऐसा करके उन्होंने एक तीर से दो निशाने साधे। जरूरत पड़ने पर इन लोगों को ‘कौन बड़ा-कौन छोटा’ के झगड़े में भी उलझाया जा सकता है, जिससे उनका मंत्रिपद ज्यादा निश्चिंतता से गुजरेगा। 
इन दिनों वक्रबुद्धि राजा साहब द्वारा लोकभाषाओं के उत्थान के लिये चलाये जा रहे प्रयासों पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं। यह रिपोर्ट अंग्रेज़ बहादुर के अलावा मुल्क के प्रमुख समाचारपत्रों, अन्य राजाओं व इस विषय पर कार्यरत यूरोपीय संस्थाओं को भेजी जायेगी, ताकि पूरी दुनिया जान सके कि राजा मंथरमति अपनी लोकभाषाओं के विकास के प्रति कितने समर्पित हैं।
 
 
(आउटलुक हिंदी के 1 -15 सितम्बर 2015 में प्रकाशित )

Tuesday, August 18, 2015

साहिर लुधियानवी के गीतों पर आधारित मेरी पहली पुस्तक - साहिर लुधियानवी के हिन्दी गीत

अमर वर्मा जी इसके सह-संपादक हैं और इसे स्टार पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है |

इस संकलन में साहिर के लिखे ऐसे गीत शामिल किए गए हैं, जिन्हें हम ठेठ हिन्दी गीत कह सकते हैं | इन गीतों की विशेषता यह है कि इन्हें लिखते वक्त साहिर ने उर्दू-शब्दों से परहेज किया | इनमें प्रेम गीत हैं तो विरह व जुदाई के गीत भी, जीवन-दर्शन समझते गीत हैं तो मस्ती भरे गीत भी, देशभक्ति के गीत हैं तो आरतियां, भजन, बालगीत व विदाई गीत भी | ये गीत साहिर की हिन्दी भाषा पर गहरी पकड़ को दर्शाते हैं | साहिर के गीतों का यह ऐसा पक्ष है, जो उनके उर्दू शायरी की विराटता के कारण ओझल ही रहता है | इस संकलन में ऐसे 100 गीतों को शामिल किया गया है, जो साहिर के इस पक्ष को सामने लाते हैं  |
 

 

 

 
 

Tuesday, March 10, 2015

वो हर इक पल का शायर है

साहित्यिक पुनर्नवा, दैनिक जागरण में  9 मार्च, 2015 को प्रकाशित साहिर लुधियानवी  पर मेरा लेख  
shttp://epaper.jagran.com/ePaperArticle/09-mar-2015-edition-Delhi-City-page_18-1244-4174-4.html 
       
 सन पचास व साठ का दशक फिल्मी गीतों का सबसे बेहतरीन दौर माना जाता है | इसमें न सिर्फ संगीतकारों ने बल्कि गीतकारों ने भी अपना शानदार योगदान दिया | अगर देखा जाए, तो एक अच्छी धुन को अमरता उसके शब्दों से मिलती है | हम एक गीत को उसकी धुन के कारण पसंद तो करते हैं, परंतु याद हमें वह उसके बोलों की वजह से होता है | ये साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, शकील बदायूंनी, कैफी आज़मी, मजरूह, प्रदीप, नीरज जैसे दिग्गज गीतकारों के शब्दों का जादू है, जो कल भी लोगों को अपने रंग में भिगोता था, और आज भी उसी तरह सराबोर करता  है | इन सभी गीतकारों ने कई लाजवाब गीत लिखे, पर जिस प्रकार साहिर ने इन गीतों का साहित्यिक व सामाजिक स्तर बढ़ाया, उसका कोई सानी नहीं है | गुलजार कहते हैं - साहिर वो अकेले गीतकार हैं, जिनके गीत उनके बोल के दम पर सफल हुये, न कि किसी धुन या गायक, गायिका के दम पर | हिन्दी सिनेमा के इतिहास में यह सिर्फ साहिर के साथ हुआ कि एक गीतकार अपने दम पर सफल हो पाया हो |  
 
 साहिर की खासियत यह थी कि वे गीतों को कुछ इस तरह से लिखते थे कि वे फिल्म के साथ-साथ समूचे समाज की कहानी मालूम होते | प्यासा फिल्म का हीरो जब अपने मतलबपरस्त समाज से नाराज होता है, तो कहता है - ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया/ ये इंसां के दुश्मन समाजों की दुनिया/ ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया/ ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है | साधना में जब एक वेश्या पुरुषवादी समाज के दोहरे चरित्र को सामने लाती है, तो कहती है - औरत ने जनम दिया मर्दों को/ मर्दों ने उसे बाज़ार दिया/ जब जी चाहा मसला कुचला/ जब जी चाहा धुत्कार दिया |  फिर सुबह होगी में फुटपाथ पर रात गुजारता हीरो गाता है – चीनो-अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा/ रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमारा | वक्त फिल्म में एक पार्टी सिंगर गाती है - आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू/ जो भी है, बस यही इक पल है |  धूल का फूल में एक अनाथ बच्चे को पालने वाला बूढ़ा गाता है - तू हिन्दू बनेगा, न मुसलमान बनेगा/ इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा | इन गीतों को सुनकर, पढ़कर साफ हो जाता है कि साहिर इनके सहारे सिर्फ फिल्म की कहानी ही नहीं, कुछ और भी कहना चाहते हैं | ये कुछ और कहने की आदत है, जो साहिर को बाकी गीतकारों से अलग करती है |   
 
उनका मानना था कि फिल्मों का दायरा काफी विस्तृत होता है, इसलिए हम इसके माध्यम से कम-से-कम समय में ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं | यही वह कारण है कि उन्होंने अपने गीतों के सहारे समाज के हाशिये पर पड़े मजदूर, किसानों, गरीबों को आवाज दी | आज़ाद मुल्क की रूपरेखा, महिलाओं की विषम परिस्थिति, मनुष्यों में गैर-बराबरी की समस्या, धार्मिक कट्टरपपन जैसे विषय उनके गीतों का हिस्सा रहे | उनकी खूबी यह रही कि ये  काम उन्होंने फिल्म की कहानी के दायरे में रहकर किया | उदाहरण के तौर पर जब फिर सुबह होगी में नायक नायिका को ढाढस बंधाता है, तो कहता है – इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा/ जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा/ जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नगमे गाएगी /वो सुबह कभी तो आयेगी जब हम फिल्म देखते हैं, तो पाते हैं कि यह गीत फिल्म का अहम हिस्सा है, जबकि एक स्वतंत्र गीत के रूप में भी इसे पढ़ा व सराहा जा सकता है |


साहिर के गीतों की एक अन्य विशेषता यह है कि जब हम उन्हें पढ़ते हैं तो वो फिल्मी गीत की बजाय अदबी शायरी मालूम होते हैं | “जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात”,  “रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ”,  “हम इंतज़ार करेंगे तेरा कयामत तक/ खुदा करे कि कयामत हो और तू आए”, “पाँव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी”,  “अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं” जैसी नज़्में फिल्मी-गीत कम और शायरी ज्यादा मालूम होते हैं | ख्वाजा अहमद अब्बास के अनुसार फिल्मी गीतों को साहित्यिक रंग देने का श्रेय साहिर को ही जाता है | उनके बाद कई गीतकारों ने ऐसा किया परंतु शुरुआत साहिर ने ही की |

साहिर साहित्यिक शायरी से फिल्मों में आए थे | असल जिंदगी में वे पहले शायर बने, उसके बाद गीतकार | उनकी गज़लों, नज्मों का संकलन तल्खियाँ महज बाईस-तेईस साल की उम्र में छप चुका था | इसे गालिब के दीवान के बाद उर्दू शायरी की सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तक माना जाता है | इसमें उनकी नज्म ताजमहल भी शामिल है, जिसमें उन्होंने ताजमहल को एक नयी रोशनी में पेश कर हंगामा खड़ा कर दिया था - इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर, हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक |

साहिर का जन्म 8 मार्च, 1921 को हुआ था | उनके पिता चौधरी फज़ल मुहम्मद लुधियाना के एक अमीर व विलासप्रिय जमींदार थे | उनकी माँ सरदार बेगम उनके पिता की ग्यारहवीं पत्नी थीं | चूंकि साहिर अपने पिता की इकलौती संतान थे, सो उनके बचपन के कुछ साल बड़े आराम से गुजरे | परंतु पिता की हरकतों से परेशान होकर माँ अलग हो गयी | बात इतनी बढ़ी कि पिता ने साहिर को जान से मरवाने की धमकी दे डाली | माँ डर गयी और उन्होंने नन्हें साहिर पर निगरानी रखवा दी | इस प्रकार उनका बचपन कंगाली के साथ-साथ खौफ की भी भेंट चढ़ गया | माँ ने जैसे तैसे करके उन्हें पाला | इससे साहिर के मन में अपने पिता व उनकी सामंती व्यवस्था के प्रति एक गहरी नाराजगी भर गई | कालेज में उनका प्रेम संबंध भी धर्म व समाज की बंदिशों की भेंट रहा | इन दोनों घटनाओं ने साहिर को इंसान की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का गहरा पक्षधर बना दिया | सबसे पहले इंसान है, उसके बाद समाज, सरकार और उनके बनाए नियम-कानून | हर वो विचार, रस्मो-रिवाज, जो इंसान की आज़ादी पर अंकुश थे, साहिर उसके खिलाफ हो गए | “रंग और नस्ल, जात और मजहब/ जो भी हो आदमी से कमतर है” उनके मूल सिद्धान्त बन गए | वे एक बागी शायर कहलाये, जिनका मानना था – अपना हक संगदिल जमाने से छीन पाओ, तो कोई बात बने |

साहिर सांप्रदायिक सदभाव के भी जबर्दस्त पैरोकार थे | इसका कारण भी उनके व्यक्तिगत अनुभव थे | जिन दिनों मुल्क आज़ाद हुआ, वे मुंबई में थे | उनकी माँ लुधियाना में थी और शहर के बाकी मुस्लिम परिवारों की तरह वह भी पाकिस्तान चली गयीं | जब साहिर को यह खबर मिली, तो वे उनकी तलाश में दिल्ली होते हुये लाहौर पहुंचे | उस दौरान उन्हें हिन्दू व मुस्लिम दोनों धर्मों के उग्रपंथियों का शिकार होना पड़ा था | दंगो के इन अनुभवों ने उन्हें जीवन भर के लिए धार्मिक कट्टरता के खिलाफ कर दिया | उन्होंने माना कि धर्म कोई भी हो, वह इंसान और इंसानियत से बढ़कर नहीं हो सकता - हर मजहब से ऊंची है कीमत इंसानी जान की | साहिर सब धर्मों की साझेदारी के पक्षधर बन गए | उन्होंने अपने गीतों में धार्मिक एकता पर बल देती पंक्तियाँ रचीं काबे में रहो, या काशी में, निस्बत तो उसी की जात से है/ तुम राम कहो कि रहीम कहो, मतलब तो उसी की बात से है” (धर्मपुत्र),  “राम रहीम कृष्ण करीम, ईशु मसीह और इब्राहीम/ सबकी है इक ही तालीम” (मेहमान), “कुरआन न हो जिसमें वो मंदिर नहीं तेरा/ गीता न हो जिसमें वो हरम तेरा नहीं है |” (धूल का फूल)

माँ के कारण साहिर लाहौर चले तो गए, पर वो साल भर भी वहाँ टिक न पाये | वहाँ उन्होंने पाकिस्तानी सरकार के खिलाफ कुछ लेख लिखे, जिससे उनकी गिरफ्तारी की नौबत आ गयी | यह खबर मिलते ही वे वहाँ से निकल पड़े | यह जून, 1948 की बात थी | इसके बाद साहिर वापस पाकिस्तान नहीं गए | एक गीतकार बनने का संकल्प लेकर वे मुंबई चल दिये | अब फिल्मी दुनिया ही उनका ठिकाना थी |

मुंबई के दूसरे प्रवास में साहिर की पहली फिल्म थी – नौजवान(1951), जिसमें उनका लिखा गीत “ठंडी हवाएँ, लहरा के आए खूब पसंद किया गया | देवानंद की बाजी(1951) और जाल(1952) के गीतों के हिट होने के बाद साहिर सफल गीतकार मान लिए गए | सन 1957 में आयी गुरुदत्त की फिल्म प्यासा साहिर के जीवन में एक अहम मुकाम साबित हुयी | इसके गीत हिट हुये और इसका पूरा श्रेय साहिर को मिला | इस फिल्म के बाद साहिर का आत्मविश्वास बढ़ गया | अब उन्होंने गीत लिखने से पहले दो शर्तें रखनी शुरू कीं | एक तो यह कि पहले वे गीत लिखेंगे, फिर संगीतकार उसके आधार पर अपनी धुन बनायेंगे | दूसरी यह कि उन्हें संगीतकार से ज्यादा मेहनताना मिलेगा, चाहे वह एक रुपया ही ज्यादा क्यों न हो | उनका मानना था कि एक गीत को बनाने में एक गीतकार का योगदान संगीतकार से ज्यादा होता है | उनकी इस जिद के कारण नौशाद और शंकर-जयकिशन ने कभी उनके साथ काम नहीं किया | पर साहिर ने भी इसकी परवाह नहीं की | उन्होंने सिर्फ अपनी पसंद के संगीतकारों के साथ काम किया और ऐसे-ऐसे हिट गीत दिये कि लोग उनका लोहा मान गए |

साहिर ने फिल्मों में रोमांटिसिज़्म को भी नए मायने दिये | प्रकृति को प्रेम के साथ जोड़कर गीत रचने का काम उन्होंने ही शुरू किया | जाल के गीत पेड़ों की शाखों पे सोई-सोई चाँदनी/ तेरे  ख्यालों  में  खोखोचांदनी / और थोड़ी देर में थक के लौट जाएगी” जैसी भाषा व भाव साहिर से पहले नहीं मिलते थे | साहिर ने कई लाजवाब प्रेम-गीत भी रचे, जिनमें प्रमुख है- जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा (ताजमहल), चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों (गुमराह), नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले (हमराज़), मिलती है जिंदगी में मुहब्बत कभी-कभी (आँखें) कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है (कभी-कभी) फूलों के डेरे हैं, साये घनेरे हैं, झूम रही हैं हवायें (ज़मीर) ये आँखें देखकर हम सारी दुनिया भूल जाते हैं (धनवान) | साहिर ने हालांकि कई खूबसूरत प्रेम-गीत लिखे, पर असल जिंदगी में वे प्रेम से महरूम ही रहे | यूं तो उनके प्रेम के कई किस्से हैं, जिनमें अमृता प्रीतम व सुधा मल्होत्रा का नाम भी आता है | पर ये प्रेम कभी परवान न चढ़ सके और साहिर पूरी उम्र अकेले ही रहे | उनके जीवन का एकमात्र सहारा उनकी माँ थी, जो अंत तक उनके साथ रही | 

साहिर आज हमारे बीच नहीं है, पर उनके लिखे गीत उनकी धरोहर के रूप में हम सबकी साझा संपत्ति हैं | वे एक ऐसे गीतकार, शायर थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के सहारे एक नई  किस्म की सामाजिक सक्रियता को जन्म दिया | अपनी रचनाओं में वे एक ऐसे दार्शनिक, भविष्यदृष्टा के रूप में नज़र आते हैं, जिसने हर इंसान के प्रति अपने प्रेम को महसूस किया और समाज के दबे-कुचले वर्ग को आवाज दी | उनके शब्दों में कहें तो – माना कि इस जमीं को न गुलज़ारकर सके/ कुछ खार तो कम कर गए, गुजरे जिधर से हम |