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Saturday, October 17, 2009

अपने तीसवें जन्मदिन पर

मैं उम्र के
उस दौर में प्रवेश कर रहा हूँ ,
जब आदतें नहीं बदलती
दोस्त बदलते हैं,
जब प्रेमिका के कानों में सपने गुनगुनाओ
तो आंखों में चमक नहीं उठती,
जब एक सच की खातिर
हज़ार दुखों से भिड़ने की चाहत नहीं होती,
जब सपनीले कल की उम्मीदें
बच्चों की फीस और
दफ्तर की फाइलों के नीचे दबने लगती हैं,
जब जोशो-ताकत से बढते तूफानी कदम
अनुभवों के स्पीड -ब्रेकरों से धीमें पड़ने लगते हैं ,
जब दिल अपने आँख, कान, नाक बंद कर
दिमाग के इशारे पर धड़कने लगता है,
जब शरीर की जरूरतों के आगे
आत्मा की छ्टपटाहट बकवास लगने लगती है ।

मैं उम्र के
इस दौर में प्रवेश कर रहा हूँ
सब कुछ जानते बूझते
फिर भी
हथेली पे दिल की इक आग लिए
कि अब तो बस
अपनी इस कविता को झुठलाने की

तमन्ना बाकी है ।

Monday, October 5, 2009

ओ मेरी दो माह की बच्ची

ओ मेरी दो माह की बच्ची
एक सच ये है
तुम्हारा मुस्कुराना
एक सच ये है
मेरा घुटा हुआ सिर
अपने पिता की क्रिया पर .

एक जिंदगी की शुरू होते दिन
एक जिंदगी कि गुजरी हुयी घड़ियाँ ।

रिश्तेदारों, मित्रों का आना,
गम में शामिल होने को,
तुम्हारा किलकारी भरना
नये चेहरों को देखने की खुशी में ।
अपने दादाजी के जाने से बेखबर तुम
कभी हंसती, कभी रोती ,
अपनी दादी की गोदी में खेलती
बन जाती हो उनका सहारा ।

वक्त का एक टुकड़ा, जो
थम गया है मेरे घर में
ढेरों यादों को छोड़ कर
उन यादों से बने भारी बोझ को
अपने मचलते हाथों से हटाती तुम –
कि तुम जिंदगी का एक नया पल हो .
तुम ख़ुशी हो, आशा हो ,
तुम धूप की एक किरण हो
तुम हवा हो, सुगंध हो ,
महकाती हुयी हर कोने को ।

कि तुम्हारी मासूम सी हंसी की तासीर
कहीं गहरी है
पिता के ठंडे शरीर के सामने बने आसूंओं से ।
ये अबूझे बोल
कहीं असरदार हैं
पिता के दुनियादार शब्दों से ।
तुम्हारे कल के साठ सालो के सपनों
कहीं वजनी हैं
पिता के पिछले साठ सालों के किस्सों से ।

कि तुम भविष्य हो
मेरा, मेरे परिवार का,
हम जी उठेंगे तुम्हारे सहारे
तुम्हारे साथ -
ये एक भरोसा है,
एक वायदा है, एक पिता का
अपने पिता की क्रिया पर बैठे पिता का ।।
(दैनिक जागरण 11.3.2005)
(गुजरात वैभव 17.3.2005)