(रविवारी, जनसत्ता में 10.04.2016 को प्रकाशित)
एक समय था, जब दोनों ने पुल के लिए अपना योगदान दिया था | राज्य और केंद्र दोनों में एक ही पार्टी की सरकार थी | दोनों एक ही आलाकमान को सलाम बजाते थे | उनका आशीर्वाद लेकर दोनों ने मिलकर ज़ोर लगाया | सीएम साहब ने यहां राज्य में ज़ोर लगाया, केएम साहब ने वहां दिल्ली में | पैसा हो या जमीन, दोनों के लिए फाइल चली और धक्का लगते-लगाते अंजाम तक पहुंची | यहां पर हम यह बता दें कि कोई भी सरकारी काम उतना आसान नहीं होता, जितना लोग उसे समझते हैं या नेता उसे समझाते हैं | हर काम में कई पेंच होते हैं | इस पुल के साथ भी यही कहानी थी | पेंच के अंदर पेंच थे | पर अंतत: काम हुआ | केंद्र से पैसा आया, राज्य से संसाधन | यह पुल दोनों की साझा मेहनत का नतीजा था | मेहनत सफल हो चुकी थी | पुल बन चुका था | पर इस्तेमाल नहीं हो पा रहा था | प्रश्न यह था कि लोकार्पण कौन करेगा, यानि किसके नाम का पत्थर पुल पर लगेगा, यानि पुल का श्रेय किसे मिलेगा ?
“पर अब कुछ तो करना पड़ेगा !”
और पार्टी-दफ्तर.....वहां सन्नाटा पसरा हुआ था | कोई पुल की बात नहीं कर रहा था | पुल का लोकार्पण एक बुरा सपना बन चुका था, जिसे
जितनी जल्दी भुला दिया जाए, अच्छा था |
दोनों नेताओं के प्रतिष्ठा-प्रश्न पर पलीता लग चुका था और वे अपने-अपने कोनों में
दुबके बैठे थे, अपने सलाहकारों के साथ |
एक पुल था | पुल
नगर के मुख्य चौराहे पर था | चौराहा बहुत व्यस्त था | पुल चार साल बाद बनकर तैयार हुआ था | चार साल तक
नगरवासी बहुत फजीहत में रहे | ट्रैफिक जाम में फंसते रहे, धूल-धक्कड़ खाते रहे | अब पुल तैयार हुआ, तो सांस में सांस आई | पर फिर भी दिक्कत खत्म नहीं
हुई | पुल बना तो था, पर बंद था | दोनों तरफ बैरिकेड लगे थे | जनता का प्रवेश बंद था | दो हफ्ते बीत चुके थे | लोगों के सब्र का बांध
टूटता जा रहा था | उन्होंने चार साल तो काट लिए, पर ये दो हफ्ते काटने भारी थे | सामने प्लेट में
हलवा रखा था, पर खा नहीं सकते थे |
हलवे की खुशबू मन को बेकाबू किए जा रही थी और वे मन मारकर बैठे थे, लाचार बैठे थे | पुल का लोकार्पण होना बाकी था और
वह टलता जा रहा था | कारण था, हमारे
सीएम साहब और केएम साहब | सीएम, यानि हमारे
राज्य के मुख्यमंत्री | केएम, यानि हमारे
राज्य से केन्द्रीय मंत्री | पुल के खुलने को दोनों ने अपना
प्रतिष्ठा-प्रश्न बना लिया था | यही समस्या की जड़ थी |
एक समय था, जब दोनों ने पुल के लिए अपना योगदान दिया था | राज्य और केंद्र दोनों में एक ही पार्टी की सरकार थी | दोनों एक ही आलाकमान को सलाम बजाते थे | उनका आशीर्वाद लेकर दोनों ने मिलकर ज़ोर लगाया | सीएम साहब ने यहां राज्य में ज़ोर लगाया, केएम साहब ने वहां दिल्ली में | पैसा हो या जमीन, दोनों के लिए फाइल चली और धक्का लगते-लगाते अंजाम तक पहुंची | यहां पर हम यह बता दें कि कोई भी सरकारी काम उतना आसान नहीं होता, जितना लोग उसे समझते हैं या नेता उसे समझाते हैं | हर काम में कई पेंच होते हैं | इस पुल के साथ भी यही कहानी थी | पेंच के अंदर पेंच थे | पर अंतत: काम हुआ | केंद्र से पैसा आया, राज्य से संसाधन | यह पुल दोनों की साझा मेहनत का नतीजा था | मेहनत सफल हो चुकी थी | पुल बन चुका था | पर इस्तेमाल नहीं हो पा रहा था | प्रश्न यह था कि लोकार्पण कौन करेगा, यानि किसके नाम का पत्थर पुल पर लगेगा, यानि पुल का श्रेय किसे मिलेगा ?
यह क्रेडिट लेने का झगड़ा था, श्रेय लेने का सवाल था | जो लोग सिस्टम को सुधारने
के किताबी उपदेश देते फिरते हैं, वे इस श्रेय के सवाल की
महत्ता को नहीं समझते हैं | यह हर राजनीतिक दल, दफ्तर और योजना की हकीकत है | इस सवाल को समझे बिना
व्यवस्था की कार्यप्रणाली को समझना असंभव है |
पुल के मामले में यह सवाल पहले नहीं था | पुल बनने के बाद आया था | सीएम साहब के मुख्य
सलाहकार की कृपा से आया था | उसका काम सलाह देना था - ऐसी
सलाह, जो सीएम साहब को फायदा पहुंचाती दिखे | सलाह से फायदा होगा या नहीं, यह तो भविष्य तय करेगा, और भविष्य किसने देखा है ? सलाहकार का मानना था -
सलाह फायदेमंद हो या न हो, दिखनी जरूर चाहिए |
उसने सीएम साहब को समझाया कि इस पुल को
बनने में किसने कितना योगदान दिया, यह अंदर की
बात है, लोगों से छुपी है | लोग वही
जानते हैं, जो बताया गया है | वही
जानेंगे, जो बताया जाएगा | सीएम साहब
को उसकी सलाह में दम दिखा | उन्हें समझ आ गया कि यह पुल उनकी
प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी कर सकता है | अगले ही दिन नगरवासियों
को पुल की बधाई देता एक विज्ञापन छप गया - सीएम साहब के नाम से | लोकार्पण की तारीख दो दिन बाद की रखी | यह तारीख
उनके ज्योतिषी ने तय की थी | हालांकि यह तारीख सीएम साहब की
कुंडली के हिसाब से शुभ तो नहीं थी, पर इन दिनों उनकी ग्रहदशा
कुछ ऐसी खराब चल रही थी कि यही सबसे कम अशुभ तारीख निकली |
विज्ञापन छपा तो दिल्ली में बैठे केएम
साहब बिदक पड़े | यह उन्हें विश्वासघात लगा | ऐसा उनके सलाहकार को भी लगा | उसने भी विज्ञापन
देखा था और उसकी स्वामिभक्ति जाग गई | उसे अपनी नौकरी जस्टिफ़ाई
करने का मौका मिला | वो जानता था, केएम
साहब के लिए यह एक भावुक क्षण था | ‘मुझे
इस वक्त उनके पास होना चाहिए,’ उसने विचार किया और तुरंत उनके पास भागा |
उसे देखकर केएम साहब को अच्छा लगा | देखते ही पूछा, “आज का अखबार देखा?”
“वही देखकर आ रहा हूं... यह तो सरासर
धोखेबाज़ी है !”
“वही तो मैं हैरान हूं ! जब तक पुल बना
नहीं था, तब तक तो बड़े मीठे बने फिर रहे थे | अब पीठ में छुरा भोंक दिया |”
“पर अब कुछ तो करना पड़ेगा !”
“क्या किया जाए... लोकार्पण तो कल है |”
फिर दोनों सोच-विचार में लग गए | तय हुआ कि हाथ पर हाथ धरे रखकर बैठा नहीं जा सकता | पब्लिक में गलत
संदेश जाएगा |
“मेहनत मैं करूं और श्रेय वो ले जाए, यह तो मैं होने नहीं दूंगा |”
...और जो केएम साहब पहले पुल बनाने के लिए
मंत्रालयों में ज़ोर लगा रहे थे, वे अब पुल रुकवाने के लिए पार्टी-दफ्तर
की ओर लपके | आलाकमान ने शाम को मिलने का समय दिया और वे नमस्ते
करके वापस आ गए | इस बीच उन्होंने नगर के अपने कार्यकर्ताओं
में संदेश पहुंचा दिया - किसी भी परिस्थिति के लिए तैयार रहो, यह आर-पार की लड़ाई है |
शाम को आलाकमान से मिलकर उन्होंने विस्तार
से सच-झूठ सुनाया | आलाकमान ने अपने सलाहकार से सलाह ली | चूंकि केएम साहब समझदार थे, सो वे सलाहकार को पहले
ही सेट कर चुके थे | दोस्ती और पैसा इस दुनिया की बड़ी ताक़तें
हैं | दोनों ताकतों के संगम ने असर दिखाया और तय हुआ कि पुल
का लोकार्पण रोका जाए | आलाकमान के सलाहकार ने वहीं से सीएम
को फोन किया और पूछा – आपने आलाकमान को बताए बगैर तारीख कैसे तय की? उन्हें लोकार्पण टालने और अगले दिन दिल्ली हाजिर होने के आदेश मिले |
इसी बीच पुल के सामने थोड़ा-बहुत तमाशा भी
हुआ | केएम साहब के चेलों ने वहां लगा सीएम साहब
के नाम का पत्थर तोड़ दिया | फिर दोनों नेताओं के चेलों में
पत्थर-बाजी हुई और पुलिस के डंडे चले | जिस पुल को जनता को
समर्पित होना था, वो मार-पिटाई का गवाह बनकर रह गया | इधर कार्यकर्ताओं ने अपनी स्वामिभक्ति दिखाई, उधर
नगरवासियों ने अफसोस जताया – हाय! ट्रेफिक में फिर रुक-रुककर जाना पड़ेगा!
दूसरे दिन सीएम साहब दिल्ली से डांट खाकर
और पद बचाकर वापस आ गए | अब वे लोकार्पण छोड़ बदले की सोचने लगे | मौका सात-आठ दिन में मिल भी गया | इस बार लोकार्पण
केएम साहब द्वारा होना था, आलाकमान के सलाहकार की मौजूदगी
में | आलाकमान खुद नहीं आए | जो पुल
झगड़े का कारण बन चुका हो, उससे दूर रहना बुद्धिमानी है – यही
सयानापन है, राजनीति है | और उनका
फैसला सही साबित हुआ |
लोकार्पण से ठीक एक दिन पहले केएम साहब के
किसी पुराने घोटाले का किस्सा अखबार में छप गया | दिन
में सीएम साहब के समर्थकों ने नारेबाजी कर दी – भ्रष्ट नेता
गद्दी छोड़ो | एक ही पार्टी के दो गुट एक बार फिर भिड़े | एक बार फिर उसी चौराहे पर पत्थरबाजी हुई और एक बार फिर पुलिस के डंडे
बरसे | दिन भर पार्टी दफ्तर में तमाशा होता रहा, वो अलग | आलाकमान के सलाहकार ने मामले से पूरी तरह
से कन्नी काट ली | जिस मंत्री के घोटाले की खबर छपे, उससे पब्लिक में दूरी दिखाना जरूरी है | आखिरकार वो
आलाकमान के सलाहकार हैं | उनका एक गलत कदम भी आलाकमान की छवि
को नुकसान पहुंचा सकता है |
लोकार्पण फिर टल गया | नगरवासी फिर दुखी हो गए | पर कहते हैं न, पानी अपना रास्ता ढूंढ ही लेता है | सो वही हुआ | दो बिल्लियां पुल का श्रेय लेने के चक्कर में झगड़ती रहीं और बाजी बंदर
मार गया | यह बंदर विपक्षी दल का नेता था | उसने मौका लपक लिया |
अगले दिन सुबह-सुबह उसने अपने चालीस-पचास
साथी इकठ्ठा किए और साथ में नब्बे साल की एक बूढ़ी अम्मा को लेकर पुल पर पहुंच गया | उसने आरोप लगाया - सत्ता के नशे में चूर होकर दोनों नेता जनता को परेशान
कर रहे हैं...जनता इनके झगड़े का शिकार क्यों बने ?
“जनता के पुल का लोकार्पण जनता करेगी,” उसने घोषणा की | उसके साथियों ने पुल पर लगे
बैरिकेड हटा दिये | उदघाटन के लिए तुरत-फुरत एक रिबन लगाया गया
और बूढ़ी अम्मा के हाथों रिबन कटाकर पुल जनता को समर्पित कर दिया | दो-चार पुलिस वाले जो वहां ड्यूटी कर रहे थे, वे
शांत रहे | पुल खुलने पर उनकी जिंदगी भी तो आसान होनी थी | वैसे भी इस बाबत उनके पास कोई आदेश नहीं थे | सारे
अधिकारी सीएम, केएम के झगड़े में उलझे थे | और फिर सब-कुछ इतनी जल्दी हुआ कि जब तक सूचना मिलती, आदेश आता, तब तक पुल पर गाडियां दौड़ चुकी थीं | ट्रैफिक खुल चुका था | जनता का पुल जनता को समर्पित
हो चुका था | लोग नए पुल का आनंद ले रहे थे | गाड़ियां किनारे खड़ी करके सेल्फ़ी ले रहे थे | अखबार
वाले, टीवी वाले आ चुके थे और लोगों से प्रतिक्रिया जान रहे
थे | एक मजेदार-सा माहौल बन चुका था |